Dharma = holding wearable charecterstic in the wit power. Dharma is not baseless. Consisting the sum of Dayitvabodh + Adhikarbodh, Sense to Duties & Rights, It is based on three grounds (1) the development of the divine brain power + the spread of education. (2) Increment in physical work capacity + expansion of powerful generation (3) With safety of Ecology cycle social, political, economical setup gets even ( harmonious ), it does not cause asymmetry ( non harmonious ) to us.


प्रथम क्रम के धर्म में प्रथम प्राथमिकता आत्म-कल्याण होती है, दूसरे क्रम के धर्म में प्रथम प्राथमिकता वंश-कल्याण और तीसरे क्रम के धर्म में प्रथम प्राथमिकता सर्व-स्व-कल्याण यानी जगत कल्याण होता है.

In Dharma's first order the first priority is Soul-development, in Dharma's second order, the first priority is Gene-development. In Dharma's third order, the first priority is religious welfare through Ecological development.

प्रथम क्रम का धर्म आपके अपने ब्रह्म (आत्मभाव ) से जुड़ा एकात्म परम्परा का, आत्मकल्याण का विषय है अतः पूर्णतय़ा आपका व्यक्तिगत धर्म होता है तथा दूसरे क्रम का धर्म आप के ब्रह्मप्रदत्त आत्म और ईश्वरप्रदत्त पारिवारिक वंश परम्परा से जुड़ा उभयपक्षी, अद्वैत होता है. Dharma's First order is the subject of Integral tradition, self development; related to your own divine brain (Atmbhav), so it is completely your personal Dharma. and Dharma's second order is bilateral, non dual ( advait ), related to your devine brain given Aatm and Ether created family lineage.

दुनिया के जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय हैं. उनमें इन दोनों बिन्दुओं पर कहीं भी मतभेद नहीं हैं,सिर्फ़ शब्दानुवाद का फ़र्क है. क्योंकि ब्रह्म और ईश्वर सर्वत्र एक समान होते हैं,यहाँ तक कि वनस्पति और प्राणियों में भी भेद नहीं होता.

In all the the world's religious communities, there are no conflicts over these two points anywhere them, just a discrepancy of the literal translation, The divine brain and God are the same everywhere, even in plants and animals do not distinct,

लेकिन तीसरे क्रम का धर्म जो कि सम्प्रदाय कहा जाता है,वह समाज-विज्ञान ,राजनीति-विज्ञान और अर्थशास्त्र के तीन आधारों पर टिका होता है. इसमे ही अज्ञान जनित मतभेद हैं. ये तीनों आधार मानव स्वभाव की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीन गुणा तीन गुणों पर अपना विस्तार करते हैं। जिन्हें सात्विक, राजसी और तामसी कहा जाता है।

But the the ignorance generated conflicts are only of this third order of Dharma, that is religion,is based on three grounds of social science, political science and economics.These three bases expand onto three multiple three of 'three Natural human charecterstics'. These are called Saatvik, Raajsee,Taamsee.

विशेष पर्यावरण में विशेष आहार, विशेष उत्पादन, जीविकोपार्जन के विशेष तरीक़े,विशेष काल स्थान परिस्थिति,विशेष स्वभाव के आधार पर धार्मिक सम्प्रदायों के नियमों का संविधान बनता है. जो धर्म के उक्त दोनों आयामों (आत्मभाव व स्वार्थभाव) से मुक्त परमार्थ (सामुहिक स्वार्थ ) भाव से बनाए जाते हैं. उसे चाहे शास्त्र कह दो,संविधान कह दो या फिर आसमानी किताब कह दो या फिर परंपरा, रीति-रिवाज,मान्यताएं,ट्रेडिशन कह दो. इन्हीं को सांप्रदायिक मान्यताएं कहा जाता है.इन मान्यताओं में समूह के प्रत्येक सदस्य को समानता प्रदान की जाती है।इसीलिए इसे संप्रदाय कहते हैं। इंसान ही इन सम्प्रदायों की मान्यताये काल-स्थान-प्ररिस्थिति के अनुरूप बनाता ।

आज न सिर्फ इन विभिन्न सम्प्रदायों की पृष्ट भूमि पर अध्ययन करने की आवशकता है बल्कि इनकी मूल अवधारणाओं को आज के यथार्थ के अनुरूप पुनः प्रतिष्ठित-स्थापित करने की आवश्कता है।

संविधान जो कि राष्ट्रीय धर्म है वह भी सम्प्रदाय वर्ग में आता है.आज यदि हम भारत को अग्रणी और विश्वगुरु बनाना चाहते हैं तो हमें इस तरह के परिवर्तन करने होंगे जो अन्य देशों के लिए भी अनुकरणीय हो।

अन्य देश भारत को आदर्श व्यवस्था वाला माने और हम उनके अग्रज बनें.


Specific environmental special diets, special products, special way of living, especially during the field condition,based on idiosyncratic rules of the Constitution gives religious communities. The two dimensions of the religion (Atmbav and Swarthbav)-free charitable (social interests) are created with the idea. The scriptures say it, say the Constitution say the book or the sky or the tradition, customs - customs, beliefs, tradition and religious beliefs say these two are called. These assumptions is provided in the group, each member of the equality . why the denomination says. One of these communities Manytaye time - place - makes Prristhiti suit.

Now not only on the backdrop of these different communities to study their basic concepts Avskta but reinstate in accordance with today's reality - there is a need to establish.

Other India, the ideal system to be considered and their elder.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।


Friday 28 September 2012

श्री मत भगवत गीता परिपूर्ण व्याख्या के सन्दर्भ में मूल तथ्य और वर्तमान !


गीता अध्याय-18 श्लोक-63 / Gita Chapter-18 Verse-63


इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्राद्गुह्रातरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।।63।।

इति  ते   ज्ञानम्  आख्यातम्   गुह्मात्   गुह्मतरम् ;  मया  विमृश्य   एतत्  अशेषेण यथा   इच्छसि   तथा कुरु 

इति = इस प्रकार (यह) ;ते = तेरे लिये; ज्ञानम् = ज्ञान ; आख्यातम् = कहा है, आख्यान दिया है ;
गुह्मात् = गोपनीय से (भी) ; गुह्मतरम् = अति गोपनीय  मया = मेरा मायावी ;विमृश्य = अच्छी प्रकार विचार के (फिर तूं) एतत् = इस रहस्य युक्त ज्ञानको ; अशेषेण = कुछ भी शेष रखे बिना ;यथा = जैसी ; इच्छसि = इच्छा  है ; तथा = वैसा ही ; कुरु = कर्म कर;
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया । अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान मे से   कुछ भी शेष छोड़े बिना इस पर पूर्णतया भलीभाँति विचार कर ले उसके बाद जैसी इच्छा है वैसा ही कर्म कर ।।63।।

यह उपर्युक्त बात गीता के गुरु ने कही है। अब कुछ तुलना करें।


कुरआन के मुख पृष्ट पर लिखा होता है। "इस किताब में जो लिखा है उसमे शंका करने की गुंजाईश नहीं है"।

जबकि गीता में शिष्य अनेक बार गुरु की बात पर शँका और जिज्ञासा करता है उसका उत्तर उसे मिलता है।इस तरह  इसमे भी अन्य  उपनिषदों की तरह ही पश्नोत्तरी के रूप में गुरु-शिष्य की व्यक्तिगत वार्तालाप है। 


बुद्ध की बताई बातों पर जब शिष्यों में तर्क-वितर्क हुआ तब बुद्ध ने भी यही कहा कि ''जो मैं कह रहा हूँ वह प्रमाणिक सत्य है उस पर शँका मत करो बल्कि इससे भी आगे के सत्य पर अनुसंधान करो।''


जबकि गीता में कहा है कि मैंने बिना कुछ भी शेष छोड़े सब कुछ बता दिया है। लेकिन साथ में यह स्वतंत्रता भी दे दी है कि अब स्वविवेक का उपयोग करके जो भी तुझे उचित लगे वही कर्म कर। 
लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए की आधी-अधूरी बात को ध्यान में रखे, क्योंकि कहावत है "अध् जल गगरी छलकत जाय"  अतः इस अशेषेण Endless बात में सभी काल-स्थान-परिस्थिति के लिए प्रासंगिक यथा-अर्थ [ यथार्थ ] छिपा है। 

यह आत्म [आत्मा ] और स्वयं [शरीर] के बीच प्रश्नोत्तरि सँवाद है इसे सिर्फ भूतकाल  की एक घटना-विशेष मानने के मुर्खतापूर्ण पूर्वाग्रह में बन्ध कर नहीं पढ़ें और न ही ऐतिहासिक पृष्ट भूमि को अमान्य करके पढ़ें, बल्कि प्रत्तेक काल-स्थान-परिस्थिति में प्रासंगिक मान कर पढ़ें यानी वर्तमान में यथार्थ [यथा-अर्थ] दृष्टिकोण से पढ़ें।

बुद्ध,महावीर, ईसा और मोहम्द ने जो भी कहा वह वनवासियों को, प्राकृत लोगों को,जंगली कबीलाई जनसाधारण लोगों को सभ्य-संस्कारित बनाने के लिए कहा था। जब कि गीता उस शासक वर्ग के व्यक्ति को कही गयी है जो उच्च नैतिक मापदण्ड पर चलते अपने अधिकार तक का त्याग करता है। लेकिन चूँकि अधिकार और दायित्व उभय पक्षी होते हैं। अतः अधिकारों के त्याग के साथ ही कर्तव्य का त्याग 
भी स्वतः हो जाता है। अतः गीता और अन्य सभी भारतीय साहित्य में कही गयी बातों के स्तर में फर्क है।

कुछ लोग जिन्होंने भ्रष्टाचार की तरह हिंसा की परिभाषा को भी एक विशेष दृष्टिकोण में बांध रखा है, उनका कहना है कि अर्जुन तो हिंसा नहीं चाहता था लेकिन कृष्ण ने उकसाया, कुछ ये भी कह देते हैं कि इसका अर्थ हुआ दुर्योधन पहले से ही समझदार था जो लड़ना चाहता था इत्यादि। इसीलिए यह तथ्य और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि गीता में कही पूरी बात को जान-समझ कर फिर उसपर विचार करें और अपने विचारों को अभिव्यक्त करें।

गीता वैष्णव धर्म, वैश्य सम्प्रदाय का उपनिषद् शास्त्र है, अतः विश्व के लिए तब अधिक उपयोगी हो जाता है जब वैश्विकरण का दौर चल रहा होता हो और राष्ट्र के अन्दर-बाहर विरोधाभाषी उठापटक चल रही होती हो और अर्थतंत्र जटिलताओं में गुजर रहा होता हो। मानवीय मूल्य मानव निर्मित संविधानों और कोर्पोरेट संप्रदाय की भेंट चढ़ रहे होते हों।


रामायण का तुलसी-कृत नवीन संस्करण "राम चरित मानस" भी इसी दौर में उतरा है और गीता जिसमे प्रकृति को केन्द्रिय भूमिका में रख कर ज्ञान और विद्याओं को विज्ञान के अंतर्गत रख कर बताया गया है यह भी इसी दौर में अधिक प्रचारित-प्रसारित हुयी है।


जबकि भारतीय मनीषी तो प्रकृति को माया कह कर प्रकृति के वैज्ञानिक नियमों का अध्ययन करना और भौतिक निर्माण के विकास को माया में उलझना कहते रहे हैं। इसकी अपेक्षा प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाने के लिए Sense,बोध,संवेदनशीलता को विकसित करते हुए आत्म-कल्याण यानी अमरता को प्राप्त करने और जीवन में सत-चित-आनंद घन की स्थिति का सुख लेने को एवं स्वस्थ रहते हुए जीवन जीने एवं स्वस्थ रहते हुए ही स्वेच्छा से देह त्यागने को जीवन की सफलता का पैमाना मानते आते हैं। Science को जानने की तुलना में Sense को, आत्म-बोध को  विकसित करने को अधिक कल्याणकारी मानते आये हैं।


प्रकृति के नियमों को वेद या विज्ञान के नाम से जानकर इस मायावी जगत से आकर्षित होते होते जब हम काम और अर्थ Commarce में, वाणिज्य में उलझ जाते हैं तब हमारे ज्ञान-विज्ञान की मायावी खोज भी काल-स्थान-परिस्थिति के बहाव में आ जाती है। तब हमें यह इक तरफा विकास प्रासंगिक लगने लग जाता है। लेकिन विकास की इस प्रतिस्पर्धा दोड़ में जीवन ही जब अप्रासंगिक हो जाता है तब एक ऐसी अवधारणा की आवश्यकता होती है जो समग्रता लिए हुए हो,सम्यक हो। जोकि गीता मैं संकलित है।

ब्रह्म-ज्ञान आत्म-कल्याण के लिए आत्म बोध कराता है और वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] शारीरिक क्रियाओं को संचालित करने वाले सृष्टम की जानकारी देता है और ये दोनों ही विषय व्यक्तित्व विकास के लिए व्यक्तिगत है, जबकि वैष्णव साहित्य सामूहिक जीवन में काम आनेवाले अर्थशास्त्र में ब्रह्म-ज्ञान और वैदिक-ज्ञान को जोड़ता है,योग करता है अतः आज जब वैश्वीकरण का दौर है तब गीता का अशेषेण संकलन समग्र दृष्टिकोण देता है।

जब समग्र और सम्यक हो तो वह अशेषेण हो जाती है अर्थात जो एक तरफ तो पूर्ण होती है तो दूसरी तरफ अंतहीन हो जाती है तब वह अशेषेण कही जाती है। गीता भी  ऐसी ही एक रचना है जिसे शास्त्र [ धर्म sense और विज्ञान science ] की श्रेणी में भी रखा गया है। 

यह गीत की तरह गाया जाने वाला आख्यान भी है। 
यह गुरु-शिष्य प्रश्नोतरी के रूप में उपनिषद् भी है।  
राजनीति,अध्यात्म,शरीर विज्ञान,जीवनशैली, अर्थशास्त्र इत्यादि जितने भी विषय होते हैं।
सभी को एक सूत्र में बाँध कर बनाया गया सूचीपत्र और शब्द कोष भी है। 
सभी विषय होने के कारण इसे पूर्ण रूप से समझ पाना तभी सम्भव होता है जब इसे सांख्य के अनुसार समझें।जैसे की विज्ञान का एक सूत्र या समीकरण या सिद्धांत पुरे चेप्टर को सपष्ट कर देता है,  उसके बाद वह एक सूत्र अंतहीन माया के विस्तार में अंतहीन वैज्ञानिक विकास का कारण बन सकता है। 
सन्त का एक दोहा या एक लोकोक्ति उतना कुछ सैद्धांतिक तथ्य कह देती है जो अनेक पुस्तकों की रचना के बाद भी कह पाना सम्भव नहीं होता है।          

इसी परिप्रेक्ष में श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारह अध्याय कुल तीन भागों में वर्गीकृत किये जाते है।
  
  1. एक से लेकर छः अध्याय तक जो कहा है वह व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यक्तित्व के विकास सम्बन्धी हैं । अतः ये अध्याय विषेष रूप से किशोरों एवं नवयुवाओं के लिए उपयुक्त हैं। यदि वैज्ञानिक शब्दों के भाषा में कहें तो ये छः अध्याय आत्म-भाव को विकसित करने के लिए मार्ग-दर्शन और प्रेरणा देने हेतु हैं। इसे अहम् ब्रह्मास्मि ब्लॉग में पढ़ें।
  2. सातवें से लेकर बारहवें अध्याय तक में जो कहा है वह भावों के परस्पर आदान-प्रदान वाली जीव विज्ञान की ईकोलोजी (सनातन धर्म) की शाखा को शरीर विज्ञान के माध्यम से समझने हेतु हैं। इसे कृष्ण वन्दे जगत गुरुं ब्लॉग में पढ़ें।
  3. तेरहवें अध्याय से लेकर अठारहवें अध्याय तक के छः अध्याय जीव-विज्ञान की फिजियोलोजी और उससे जुड़ी साइकोलोजी संबंधी हैं जो कि समाज विज्ञान के परिप्रेक्ष में प्रशासनिक या शासक वर्ग के हेतू है । इसे शिवोहम में पढ़ें।
एक-एक तथ्य को तीन-तीन अलग-अलग तरीके से बताया गया। 
1 पहला अध्याय भूमिका है .... 1 अर्जुन विषाद योग  भूमिका।सिर्फ इस अध्याय का अध्ययन करते समय ऐतहासिक घटनाक्रम की तरह समझें उसके बाद यह सभी विषयों की समग्र पाठ्य पुस्तक बन जाती है। 

2 दुसरे अध्याय का पूर्वार्ध + 7 + 13 ....दूसरे अध्याय के अड़तीसवे श्लोक तक एवं सातवें अध्याय और तेरहवें अध्याय में एक ही तथ्य के तीनों आयाम हैं।[2] सांख्य [7] ज्ञान विज्ञान योग [13] क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग।

2 का उत्तरार्ध + 8 +14 .....इसी तरह दूसरे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक के बाद के तथा आठवे एवं चोदहवे अध्याय में ऐसे ही एक ही तथ्य के तीनों आयाम है। [2] सांख्य का योग [8] अक्षर ब्रह्म योग [14] गुणत्रय विभाग योग।

3+9+15 इसी तरह तीसरे, नवें तथा पन्द्रहवें में [3] कर्म योग [9] राजविद्याराजगुह्य योग [15] पुरूषोतम योग।

4+10+16 चौथे, दसवें तथा सोलहवें में। [4] ज्ञानकर्मसन्यासयोग [10] विभूति योग [16] देवासुर सम्पदा विभाग योग।

5+11+17 पांचवे, ग्यारहवें तथा सत्रहवें में[5] कर्म सन्यास योग [11] विष्वरूपदर्षन योग [17] श्रद्धात्रय विभाग योग। तथा 

6+12+18 का पूर्वार्ध। छठे, बारहवें तथा अठारहवें के 50वें श्लोक तक में है। [6] आत्मसंयमयोग [12] भक्तियोग [18] मोक्षसन्यास योग।


18 का उत्तरार्ध। पचासवे से अन्तिम श्लोक तक जो कहा गया है वह उपसंहार है। 


गीता के सभी अध्यायों के अन्त में लिखा गया है:- ऊँ तत् सत् इति श्रीमत् भगवत् गीता नामक उपनिषद है जो कि ब्रह्म-विद्याओं का योग-शास्त्र ( उपयोग करने का शास्त्र,Practical Science ) है यह कृष्ण-अर्जुन संवाद के रूप में है । 

किसी भी तथ्य का पूर्ण (कम्पलीट) सत्य जानने के जिज्ञासु [मुमुक्षु ] को चाहिये कि वह तथ्य के उभय पक्षी धर्म [ Sense ] और त्रिआयामी विज्ञान [Science] के सत्य को जाने। एक ही पक्ष और एक ही आयाम को जानने वाला अर्धसत्य ही जान पाता है। 

यदि कोई जिज्ञासु पूर्ण और सम्पूर्ण Complete & Whole सत्य जानना चाहता है तो उसे श्रीमद्भगवद्गीता में, जो लिखा है उस में से बिना किसी तथ्य को विमृष (विस्मृत) किये अपनी चेतना में स्थापित करे उसके बाद ऐसा कोई तथ्य नहीं रहता जिसे जानना शेष रह गया हो। 


आज जब व्यक्तिगत स्तर, आर्थिक स्तर और सामाजिक यानी संस्थागत तीनो स्तर पर विषमता फैल रही है तो इस विषमता को सम में आप्त (समाप्त) करने का एक मात्र उपाय यानी प्रथम और अन्तिम उपाय है (दर्शन और विज्ञान) (सेन्स और साईन्स) (धर्म और विज्ञान) (ज्ञान और विज्ञान) (सांख्य और योग) (सिद्धान्त और कर्म) (थ्योरी और प्रयोग), (प्रिन्सिपल और व्यवहार) (ज्ञान और उपयोग) इत्यादि सभी उभय पक्षी क्षेत्रों को अद्वैत किया जाये। 

जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते हुए भी वे दोनों पहलू दो सिक्के नहीं  है। जिस तरह सिक्का अद्वैत है उसी तरह धर्म और विज्ञान भी अद्धैत है । (मिशन एवं प्रोफेशन) (ऑबजेक्ट एवं सब्जेक्ट) ( धर्म क्षेत्र और कुरू क्षेत्र ) ( कर्तव्य एवं अधिकार ) दोनों दो अलग-अलग नहीं होकर अभिन्न और अद्वैत हैं । इसी ज्ञान को जानना जीवन का परम्-अर्थ (परमार्थ) जानना कहा गया है। 

एक व्यक्ति या वर्ग जब अपने स्व के अर्थ को सत्य मानकर एक स्वअनुष्ठित धर्म में अपना स्वार्थ देखता है तो वह अकर्म को भी कर्म मानने लगता है और कर्म को अकर्म की मान्यता दे देता है, इस तरह वह स्वयं के ही स्वर्ग को नष्ट करके निरन्तर विषमताओं में धंसता जाता है । आज के मानव में इस मार्ग से अपने आचरण को अमानवीय बना लिया है। अतः गीता की प्रासंगिकता बढ़ गयी है।
इसी परिप्रेक्ष्य में एक व्यक्ति का ब्रह्म रूप या कहें एक ब्रह्म स्वरूप व्यक्ति कहता है:-

जब जब धर्म के प्रति ग्लानि (वितृष्णा) का भाव पैदा हो जाता है और अधर्म के प्रति अभ्युदय [अभय का उदय ] होने लग जाता है तब तब मैं (ब्रह्म/ब्रेन) अपने आपका सृजन करता हूँ और साधुनाम् (सीधे-सादे जन साधारण) को परित्राण (चारों तरफ फैले हुए तनाव युक्त वातावरण से मुक्त) करने के लिए, जो दुष्कृत्य फैल गये हैं उनका विनाश करके धर्म की संस्थापना (सम-स्थापना) करने के अर्थ से शम में भावित होता रहता हूँ। युगो-युगों से यह चक्र चल रहा है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के विभूति-योग नामक दसवें अध्याय में मुझे भगवान ने अपनी विभूति बताया है और कहा ‘‘मुनियों में मैं वेद व्यास हूँ‘‘। 

मैं तो मूलतः मुनि यानी मोन रहकर मनन करने वाला दार्शनिक हूँ । 

वैदिक ऋषि (वैज्ञानिक) जब महत्तत्व ( ऑर्गेनिक एलीमेन्ट ) की संरचना का पता लगा कर उसकी गुणधर्मिता का सूत्र, समीकरण, फार्मूला, इक्वेशन खोजते हैं और वैज्ञानिक सिद्धान्तों की वैदिक ऋचायें रचते हैं तब उन ऋचाओं के माध्यम से शरीर में स्थित देवता (शरीर के टीष्यू/उत्तक) और उनकी सक्रियता और उसमें चलने वाली रासायनिक क्रियाओं को सुनिश्चित करके उन देवताओं के गुण एवं विकार बताते हैं जबकि वे वैदिक ऋचायें जनसाधारण के लिए नहीं होतीं बल्कि वेदों के विद्वान वैद्यों के लिए होती है। 

जबकि जनसाधारण को इससे कोई लेना नहीं होता कि शरीर में ये क्रियाऐं कैसे चलती हैं उसे तो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के देवत्व से मतलब होता है। उसके लिए तो वही साकार देवता होता है, जो उन्हें उनकी नैसर्गिक, मौलिक और आधारभूत आवश्यक सुविधायें देता है,जो  देवत है वह देवता है। अतः यहाँ वे लोग जन साधारण के देवता होते हैं जो उनको गवर्न करने वाले गुरु होते हैं। अतः तीसरे वैदिक पार्ट में आचार्य की उपासना करने को कहा है।


लेकिन इस तथ्य की कुरआन के उस सन्देश से तुलना करें,जिसमे किसी को भी सजदा न करने की बात कही है, तो विपरीत लगेगा । लेकिन गीता के प्रथम भाग में ब्रह्म भी यही बात कहता है कि जो देवों का यजन करेगा वह देवों को प्राप्त  होगा और जो मेरा यजन करेगा वह मुझे प्राप्त होगा। यहाँ "मेरा यजन" से तात्पर्य है "मैं जो Brain/ब्रह्म रूप में चेतना,बोध,Sanes रूप में हूँ उसका यानी अपने आप का यजन"    

वैदिक परम्परा के समानान्तरण प्राकृत परम्परा है। वैदिक परम्परा वाले वैदिक ऋषि (वैज्ञानिक) कहे गये और प्राकृत परम्परा के मुनि (दार्शनिक) कहे गये हैं ।
मुनि परम्परा वाला मनोविज्ञान, मानसिकता, स्वभाव, अध्यात्म विषय का अध्ययन करके फिर आचरण सिखाने वाला आचार्य होता है। 

इन दोनों का योग ही व्यक्ति को योगी ब्रह्मण बनाता है।


मैं मूलतः तो मुनि हूँ लेकिन मैं वेदों की इस तरह वृताकार व्याख्या करता हूँ कि तथ्य और तत्व का कोई भी आयाम अछूता ना रह पाये। 


मैं मुनि होते हुए भी विज्ञान की सभी शाखाओं का अध्ययन करके जब वेदों का जानकार भी हो जाता हूँ तो फिर मैं भी मनीषी ब्राह्मण बन जाता हूँ अतः मैं वेदव्यास भी ब्रह्मा का मानस पुत्र हूँ ।
मुनि = मननशील दार्शनिक
वेद = वैज्ञानिक विद्याओं के शास्त्र 
व्यास = तथ्य के सभी आयामों की विस्तार से पर्याप्त [परी आप्त ],परिपूर्ण, बहुआयामी, Diameter व्याख्या करके समझाने वाला व्याख्याकार । 

मैंने [वेदव्यास ने] ही वैदिक शब्दों का मानवीकरण करके पुराणों की रचना की है। मैंने ही ब्राह्मणों [ब्रह्मण ग्रन्थों] तथा स्मृतियों मैं वर्णित तथ्यों को उपदेषों के रूप में गुरू-शिष्य की व्यक्तिगत वार्ता का रूप देकर उपनिषद रचे। 

प्रत्येक उपनिषद गुरू शिष्य की व्यक्तिगत वार्तालाप के रूप में है। किसी में गुरू तो आत्म-रूप / ब्रह्म है और शिष्य शरीर रूप है, तो किसी में गुरू शरीर की प्रकृति रूप है तो शिष्य शरीर[पदार्थ] रूप है। शिव-गीता में गुरू ॐ आकार शरीर रूप है और शिष्या पार्वती, शक्ति, प्रकृति रूप है और राम-गीता में भी गुरू ॐ आकार शरीर रूप है तो शिष्य लक्ष्मण जनसाधारण शरीर/पुरुष है।


मैंने अठारह पुराणों की रचना की जिनमें अठारह सम्प्रदायों को उनके कर्तव्यों तथा अधिकारों के बारे में बताया है। उनकी समाज व्यवस्था और आहार से लेकर उनके आचरण के प्रत्येक बिन्दु को सांकेतिक भाषा में बताया है। वैदिक सूत्रों, समीकरणों, शब्दों को देवता और देव बनाकर उनका व्यक्तिकरण / मानवीकरण कर दिया है । इन सभी पुराणों को एक सूत्र में बाँध कर भागवत महापुराण नाम से एक महापुराण रच दिया।

यह सब इसलिए करता आया हूँ ताकि जन साधारण को साक्षर बनाने की दौड़ में न घसीटा जाये। सिर्फ श्रुति परम्परा से ही,रोचक किस्से-कहानियों से ही ज्ञान-विज्ञान की परम्परा निर्विध्न चलती रहे। इसी परिप्रेक्ष्य में  महाभारत नामक कथा-साहित्य के माध्यम से मैंने व्यक्ति के अन्दर के विभिन्न अलग-अलग मनोविज्ञान को एक एक पात्र में गहराई एवं विस्तार से उकेर कर प्रत्येक पात्र को विशिष्टतम चरित्र बना कर उसे महारथी बना दिया है । 

लेकिन मेरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना हैः ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता‘‘ इस छोटे से उपनिषद में गुरू-शिष्य की वार्ता के रूप में मैंने सभी वेदों-उपनिषदों के सारगर्भित तथ्यों को वर्गीकृत करके एक सूत्र में बाँध दिया है।
आज पूरे मानव समाज की बुद्धि जब वाणिज्यिक  (Commercial) हो गई है तो मैंने [ब्रह्म ने] अपने आपका पुनः सृजन किया है और गीता जिसमें सभी शरीर-वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक (आध्यात्मिक) रहस्यों के साथ-साथ समाज वैज्ञानिक रहस्यों को रेखांकित किया है उस की विस्तार से व्याख्या करने हेतु आपके सामने उपस्थित हुआ हूँ । 

इसीलिए इस कृष्ण-अर्जुन संवाद के अन्त में अर्जुन (एक सहज रहने वाले शरीर) को उसके शरीर की प्रकृति रूप कृष्ण कहता है कि जो मेरे द्वारा कहे गए इस आख्यान को दूसरों से कहेगा मैं उसे ज्ञान मार्ग द्वारा मेरी भक्ति मानूंगा लेकिन जिसमे मेरे प्रति श्रद्धा पूर्ण भक्ति नहीं हो अथवा जो सुनना न चाहे अथवा जो मुझ से द्वेष करे, उसे यह आख्यान नहीं कहना चाहिए।

अतः एक तरफ तो मैं मानव मात्र को इसकी व्याख्या निशुल्क उपलब्ध करा रहा हूँ तो दूसरी तरफ जिसकी रूचि ज्ञान मार्ग से सत्य को जानने में होगी सिर्फ वही इसे पढ़ेगा, तत्पश्चात जो यह जानता होगा  कि बिना उपयोग किये बिना ज्ञान व्यर्थ है, वह विषमता में फँसे इस अव्यवस्थित हो चुके जगत को पुनः सम-व्यवस्थित,संस्थापित करने के लिए ज्ञान और कर्म दोनों का योग करने योग्य योगी होगा वह स्वतः ही आगे आएगा।  


जिस तरह मुग़ल साम्राज्य और ब्रिटिष साम्राज्य के विस्तार के साथ ही राम का चरित्र रामचरितमानस के माध्यम से उतरा और जनमानस इन विषमताओं से सामना करने के लिए रामचरित मानस का सस्वर पाठ करके अपनी हारमोनी को कण्ट्रोल में करता है उसी तरह इस ज्ञान के युग में जो सत्य को जानने का जिज्ञासु है वह गीता की इस व्याख्या को सिर्फ पढ़ेगा तथा जो इन विषमताओं से मोक्ष प्राप्त करने का इच्छुक मुमुक्षु है वह इसे अपने आचरण में धारण करेगा। 

वर्तमान में राज किसी अधिनायक की मनमर्जी से नहीं बल्कि जनतन्त्र में जनता के मत से चलता है, अतः इस अशेषेण /एनसाईक्लोपीडिया का सही सही अर्थ जनमत को पता होना चाहिये ताकि शिक्षा का जो तात्पर्य कर्तव्य और अधिकारों से सम्बन्ध रखता है, उसको सर्वहारा वर्ग जान सके । 

जबकि आज की स्थिति यह है जो जितना बड़ा साक्षर (डिग्रीधारी) होता जाता है वह उतना ही अधिक अशिक्षित होता जाता है । क्योंकि वह अपने मानवीय कर्तव्यों एवं अधिकारों के विपरीत सोचने लग जाता है और अपने इसी मनोविकार को व्यावहारिक बुद्धि, Practical intelligence कहने लग जाता है।


श्रीमद्भगवत गीता नामक इस उपनिषद को छोड़ कर जितने भी शास्त्र एवं उपनिषद रचे गये हैं वे सभी किसी न किसी अपने विषिष्ट विषय पर ही केन्द्रित हैं। अनेक विषय ऐसे भी हैं जिनको लेकर तब आपको असमंजस भी होता होगा जब आप एक ही बिन्दु पर अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग लिखा देखते हैं। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक पुराण किसी न किसी जॉब आधारित जातीय सम्प्रदाय के लिए विषेष कोण से लिखा गया है अतः उसके अलग-अलग विशिष्ट आयामों को उपयुक्त (उपयोगी) तरीके से उकेरा गया है । 


जबकि इस कृष्ण-अजुर्न संवाद नामक गीता में किसी भी बिन्दु को शेष नहीं रखा है और प्रत्येक बिन्दु को त्रिआयामी तथ्यों से स्पष्ट किया गया है। अतः यह ना तो विषिष्ट वर्ग के लिए विशिष्ट है और ना ही विशिष्ट काल-स्थान-परिस्थिति तक ही प्रासंगिक है और ना ही यह वृद्धावस्था और मृत्यु शैया पर पड़े लोगों के लिए है । 


जबकि यह किशोरावस्था और नवयुवावस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसी अवस्था में एक नवयुवक को अपने व्यक्तित्व विकास की दिशा और दशा का निर्णय लेना होता है । इसी वय में दिमाग की एक-एक करके खिड़कियाँ खुलती है जहाँ से ज्ञान का प्रकाश आकर अवधारणाऐं विकसित करता है।


यदि अवधारणाऐं बनने के समय ही एक जिज्ञासु किसी वाद और पूर्वाग्रह में बँध जाता है तो फिर उन अज्ञान जनित विचारधाराओं से मुक्त होना बड़ा ही पीड़ा दायक होता है। अतः जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, राष्ट्र से ऊपर उठकर ही इस कृष्ण-अर्जुन संवाद के रूप में लिखे गये ज्ञान-विज्ञान के विश्वकोष को पढ़ें । 

ना तो भारतीय होने के नाते इस पर गर्व करके इतराने की आवश्यकता है और ना ही इसें किसी सम्प्रदाय विशेष का समझ कर इस में दोष ढूढ़ने का प्रयास करने का मानसिक श्रम करने की आवश्यकता है । सिर्फ जिज्ञासु बन कर इसका अध्ययन करने की आवश्यकता है । 


जब हम नकारात्मक विचारों Negative thoughts से सोचते हैं तब तर्कपूर्ण जिज्ञासा के स्थान पर वस्तुस्थिति को नकार कर कुतर्क करते हैं। जैसे कि भगवान या ईश्वर यदि है तो फिर दुनियाँ में इतना अन्याय, दुःख और भ्रष्टाचार इत्यादि क्यों है ? लेकिन किसी तथ्य को नकार कर उस पर प्रश्न चिन्ह लगाना और जिज्ञासु होकर प्रश्न पैदा करने में रात और दिन जितना भेद होता है। अतः  गीता के अध्यन से पूर्व अपनी अवधारणा स्पष्ट करलें। 


यह विचार भी एक नकारात्मक मानसिकता से उपजा है कि अर्जुन तो लड़ना नहीं चाहता था लेकिन कृष्ण ने उसे हिंसा में धकेला। इस तरह के तार्किक-विचार जिज्ञासा हो;तब तो उस मनोविज्ञान कि अपेक्षा उचित होते हैं, जो तर्क की कसोटी पर कसे बिना अंधभक्ति से स्विकार कर लिये जाते हैं।

अतः यहाँ यह तथ्य स्पष्ट हो जाना चाहिए कि एक राजनीतिज्ञ और राज्य की बागडोर सँभालने में सक्षम किन्तु सहज व्यक्ति को यह बताया गया है कि तुम्हें यह लडाई इस लिए नहीं लड़नी है कि सत्ता का सुख भोगना है, बल्कि इस लिए लड़नी है कि जिस दुर्योधन के राज में धन का दुरुपयोग युद्ध के लिए आयुध [ Armament ] खरीदने में हो, जिस दुशासन के राज में प्रशासनिक प्रणाली सीधे-साधे जनसाधारण का सुख छीनने वाली और दुःख बढाने वाली हो, उनको मारकर सत्ता अपने हाथ में लेनी है और जिस सम्राट की धृति [ अवधारणा धारण करने वाली बुद्धि ] राष्ट्र के नाम पर बन्ध जाये और जन समस्याओं के प्रति अँधा होकर सिर्फ अपनी सन्तान को ही सत्ता पर बैठने का इच्छुक हो जाये, ऐसे अन्धे धृत-राष्ट्र से राष्ट्र को मुक्त कराना है।


आज जब सभी राजनैतिक दल और दलों के सम्राटों की यही स्थिति हो गई है,शासक-प्रशासक  व्यवस्था के स्थान पर अव्यवस्था फैला रहे हैं, राष्ट्र की भोगोलिक सुरक्षा के नाम पर मानवीय संवेदनाएं नष्ट हो गयी है, इस स्थिति में सिर्फ सत्ता हस्तान्तरण के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए लडाई लड़नी है। यह लडाई उस हिंसा के विरुद्ध अहिंसक होनी चाहिए जो हिंसा हमें कुत्तागिरी तक गिरा चुकी है और हम झुण्ड   बना-बना कर रोटी के कुछ टुकड़ों [ पैसों ] के लिए और अपनी गली [गलियारे ] के अधिग्रहण के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए हैं। इस हालात में विद्यार्थी ही एकमात्र ऐसा वर्ग है जो गीता की अवधारणा को समझ कर राजनैतिक लडाई लड़ सकता है।


यह लडाई पाँच पाण्डवों वाली पंचायती राजव्यवस्था और धार्तराष्ट्रों  के बीच थी और वही लडाई आज मतदान पत्रों के माध्यम से पुनः लड़ी जानी है।   

राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व में बँधे वर्ग से मैं मुनि वेदव्यास यह अपेक्षा करता हूँ कि वे अर्जुन होकर अर्थात् सहज होकर पढ़ें और सनातन धर्म (परिस्थितिकी/ईकोलोजी) की रक्षा और प्रसार के लिए प्राकृतिक-उत्पादन की अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने हेतू किये जा रहे इस प्रयास हेतू ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रियता बढ़ायें।


मात्र गौवध रोकने से कुछ नहीं होगा। जो पैदा हुआ है वह मरेगा। आज की आवश्यकता है "गौवंश के संवर्धन की"।


इसी तरह धर्म-निरपेक्ष और मध्यममार्गी कांग्रेसियों से भी यह अपेक्षा करता हूँ कि वे ग्रामीणों और वनवासियों के थपड़ मारना बन्द करें और अपनी पार्टी के प्रथम चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी और दूसरे चुनाव चिन्ह बछड़े सहित गाय पर ध्यान केन्द्रित करें। 

भारतीयों को ना तो आणविक उर्जा से सुखी किया जा सकता है ना ही नगरीकरण और औद्योगिकीकरण से सुखी किया जा सकता है,न ही विदेशी निवेश से,  चुंकि आप माध्यम मार्गी दल से हैं ,अतः भारतीय जनमानस घूम-फिर कर आपको ही चुनता है। जबकि आप इसका दुरूपयोग करते हैं । इसका अर्थ यह ना समझें की मतदाता के  पास वापस थपड़ मारने की हथेलियाँ नहीं है।


साम्यवादियों से कहना है वे भारतीय कौटुम्बिक व्यवस्था वाले कम्युनिज्म का अध्यन करें आयातित विचारों और विदेशी भाषा को पढालिखा होने का मापदंड न बनायें।

ॐ तत सत 

Saturday 1 September 2012

विज्ञान के विद्यार्थी बंधुओं को विज्ञान के एक विद्यार्थी का नमस्कार !

 प्रिय विद्यार्थी बंधुओं नमस्कार,

  • मानव मस्तिष्क की एक विशेषता होती है कि वह न सिर्फ एक जीवन में जीवनपर्यंत सीखता रहता है बल्कि जीवन-दर-जीवन ब्रेन का क्रमिक विकास भी होता रहता है। इस प्रक्रिया को आत्म-कल्याण की प्रक्रिया और इस विषय में किये जाने वाले प्रयास को आत्म-कल्याण हेतु किया जाने वाला कार्य कहा जाता है।  
  • आपने एक समस्या से खुद भी सामना किया होगा और दूसरों से भी सुना होगा कि "याद नहीं रहता"! अतः यह भी जान लें कि इस आत्म-कल्याण की परम्परा को स्मृति परम्परा भी कहा जाता है और धर्म-परम्परा भी इसी को कहा गया है। 
  • अनेक बार आप कहते हैं कि मुझे इसका ज्ञान तो था लेकिन समय पर यह बात मेरे ध्यान में ही नहीं आयी, अनेक बार आप कहते हैं कि मैंने उस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस तरह यह स्मृति ध्यान-परम्परा के नाम से भी जानी जाती है।
  • आपने संस्कार शब्द भी सुना होगा। संस्कार एक तरह की प्रोसेस/प्रक्रिया है, इसको अवचेतन मन की स्मृति भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसी स्मृति जो समय पर अनजाने में भी ज्ञान को ध्यान मे ले आती है। यदि किसी जानकारी का समय पर ध्यान नहीं आये तो ऐसे ज्ञान की उपयोगिता ही समाप्त हो जाती है। इसलिए संस्कार का महत्त्व है।
  • आप पुनर्जीवन की प्रक्रिया और मोक्ष के बारे में भी सुनते आये है। पुनर्जन्म के प्रति आपकी शंका इसलिए है कि जिस तरह प्रातः उठते ही आपको पिछले दिनों की स्मृति ताज़ा हो जाती है उस तरह पिछले जीवन की स्मृति ताज़ा नहीं हो पाती। 
  • अब आप इस बिंदु पर थोडा चिन्तन करें कि जब आपको दो-चार दिनों पूर्व की या कुछ महीनों या कुछ वर्षों पूर्व की स्मृति ही नहीं रहती है तो पूर्व जीवन की स्मृति कहाँ से रहेगी। 
  • आप भारत की जातीय परम्परा में ब्राह्मण को सबसे कुलीन जाति के रूप में भी जानते हैं...क्यों ! जबकि ब्राह्मण का अर्थ होता है जो ब्रह्म में रमण करता है। क्या ब्रह्म में रमण करने के लिए यानी अध्ययन के बाद विषय पर चिंतन-मनन करने के लिए किसी विशेष परिवार में पैदा होना पड़ता है ! हम सभी जीवन-पर्यंत कुछ न कुछ सीखते रहते हैं अतः विद्यार्थी भी हैं और चूँकि हमारे पास ब्रेन भी है और ब्रह्म में रमण भी करते हैं अतः हमें सबसे पहले तो अपने आप को ब्राह्मण मान कर चलना चाहिए और इस दिशा में आगे से आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
  • इस क्षेत्र में असंख्य विषय है अतः असंख्य दिशाएँ भी है इसी परिप्रेक्ष में ब्रह्मा के चारों दिशाओं में मुख दिखाये गये हैं।
  • आपको यदि स्मृति को मजबूत करना है तो इसका तरीका है आप किसी एक ही विषय में बँध कर उसे रटने का व्यर्थ या निरर्थक या अथक प्रयास करने के स्थान पर सभी विषयों का समान्तर Parallel और simultaneous समकालिक अध्ययन करें और एक-दूसरे विषय को ठीक उसी तरह गूँथ लें जिस तरह पहले धागा और बाद में उसी धागे से मछली पकड़ने का जाल गूँथा जाता है, तब आपकी स्मृति ज्ञान को ध्यान में बदल देगी। ठीक वैसे ही जैसे मछुआरा जाल को एक सिरे से थाम कर सैंकड़ों मछलियाँ पकड़ लेता है।चूँकि स्मृति का सम्बन्ध रूचि से होता है अतः यदि आपको पढ़ा हुआ याद नहीं रहता तो इसका अर्थ है उस विषय में रूचि नहीं है। रूचि पैदा करने के लिए एक ही तरीका है उस विषय से जुड़े सभी विषयों का अध्ययन एक साथ करें simultaneouslly करें किसी न किसी एक विषय में तो रूचि जागृत हो ही जायेगी तो सभी विषय याद रह जायेंगे।
  • स्मृति परम्परा के सामानांतर श्रुति परम्परा है अर्थात जो आपके पूर्ववर्तियों ने जाना है,खोजा है, Research, शोध, अनुसंधान, investigation किया है उसको सुनना या लिखा हुआ हो तो पढ़ना।ये दोनों परम्पराएँ उभयपक्षी Bipartite हैं अतः एक दुसरे की पूरक हैं।
  • इस तरह स्मृति व् संस्कार वाली ब्रह्म-परम्परा और श्रुति व् वैज्ञानिक खोज वाली वेद-परम्परा दोनों मिलकर अद्वेत हो जाती है।
  • आप यदि जीवविज्ञान और आयुर्विज्ञान के विद्यार्थी हैं अथवा रह चुके हैं अथवा इस विषय के जॉब से जुड़े हैं अथवा इस विषय में रूचि रखते हैं तो आप इन ब्लॉग्स पर विजिट करें तथा इस पोस्ट की  कॉपी करें और अपने परिचितों को भी भेजें। वेदव्यास के ब्लॉग्स का अध्ययन करने के बाद जीवजगत और आयुर्विज्ञान के साथ-साथ जीवन-काल और जीवन के बाद पुनः जीवन की प्रक्रिया के एक-एक बिंदु को आप सुस्पष्ट समझने में समर्थ हो जायेंगे।    


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