इति = इस प्रकार (यह) ;ते = तेरे लिये; ज्ञानम् = ज्ञान ; आख्यातम् = कहा है, आख्यान दिया है ;
गुह्मात् = गोपनीय से (भी) ; गुह्मतरम् = अति गोपनीय ; मया = मेरा मायावी ;विमृश्य = अच्छी प्रकार विचार के (फिर तूं) ; एतत् = इस रहस्य युक्त ज्ञानको ; अशेषेण = कुछ भी शेष रखे बिना ;यथा = जैसी ; इच्छसि = इच्छा है ; तथा = वैसा ही ; कुरु = कर्म कर;
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया । अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान मे से कुछ भी शेष छोड़े बिना इस पर पूर्णतया भलीभाँति विचार कर ले उसके बाद जैसी इच्छा है वैसा ही कर्म कर ।।63।।
यह उपर्युक्त बात गीता के गुरु ने कही है। अब कुछ तुलना करें।
कुरआन के मुख पृष्ट पर लिखा होता है। "इस किताब में जो लिखा है उसमे शंका करने की गुंजाईश नहीं है"।
जबकि गीता में शिष्य अनेक बार गुरु की बात पर शँका और जिज्ञासा करता है उसका उत्तर उसे मिलता है।इस तरह इसमे भी अन्य उपनिषदों की तरह ही पश्नोत्तरी के रूप में गुरु-शिष्य की व्यक्तिगत वार्तालाप है।
बुद्ध की बताई बातों पर जब शिष्यों में तर्क-वितर्क हुआ तब बुद्ध ने भी यही कहा कि ''जो मैं कह रहा हूँ वह प्रमाणिक सत्य है उस पर शँका मत करो बल्कि इससे भी आगे के सत्य पर अनुसंधान करो।''
जबकि गीता में कहा है कि मैंने बिना कुछ भी शेष छोड़े सब कुछ बता दिया है। लेकिन साथ में यह स्वतंत्रता भी दे दी है कि अब स्वविवेक का उपयोग करके जो भी तुझे उचित लगे वही कर्म कर। लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए की आधी-अधूरी बात को ध्यान में रखे, क्योंकि कहावत है "अध् जल गगरी छलकत जाय" अतः इस अशेषेण Endless बात में सभी काल-स्थान-परिस्थिति के लिए प्रासंगिक यथा-अर्थ [ यथार्थ ] छिपा है।
यह आत्म [आत्मा ] और स्वयं [शरीर] के बीच प्रश्नोत्तरि सँवाद है इसे सिर्फ भूतकाल की एक घटना-विशेष मानने के मुर्खतापूर्ण पूर्वाग्रह में बन्ध कर नहीं पढ़ें और न ही ऐतिहासिक पृष्ट भूमि को अमान्य करके पढ़ें, बल्कि प्रत्तेक काल-स्थान-परिस्थिति में प्रासंगिक मान कर पढ़ें यानी वर्तमान में यथार्थ [यथा-अर्थ] दृष्टिकोण से पढ़ें।
बुद्ध,महावीर, ईसा और मोहम्द ने जो भी कहा वह वनवासियों को, प्राकृत लोगों को,जंगली कबीलाई जनसाधारण लोगों को सभ्य-संस्कारित बनाने के लिए कहा था। जब कि गीता उस शासक वर्ग के व्यक्ति को कही गयी है जो उच्च नैतिक मापदण्ड पर चलते अपने अधिकार तक का त्याग करता है। लेकिन चूँकि अधिकार और दायित्व उभय पक्षी होते हैं। अतः अधिकारों के त्याग के साथ ही कर्तव्य का त्याग भी स्वतः हो जाता है। अतः गीता और अन्य सभी भारतीय साहित्य में कही गयी बातों के स्तर में फर्क है।
कुछ लोग जिन्होंने भ्रष्टाचार की तरह हिंसा की परिभाषा को भी एक विशेष दृष्टिकोण में बांध रखा है, उनका कहना है कि अर्जुन तो हिंसा नहीं चाहता था लेकिन कृष्ण ने उकसाया, कुछ ये भी कह देते हैं कि इसका अर्थ हुआ दुर्योधन पहले से ही समझदार था जो लड़ना चाहता था इत्यादि। इसीलिए यह तथ्य और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि गीता में कही पूरी बात को जान-समझ कर फिर उसपर विचार करें और अपने विचारों को अभिव्यक्त करें।
गीता वैष्णव धर्म, वैश्य सम्प्रदाय का उपनिषद् शास्त्र है, अतः विश्व के लिए तब अधिक उपयोगी हो जाता है जब वैश्विकरण का दौर चल रहा होता हो और राष्ट्र के अन्दर-बाहर विरोधाभाषी उठापटक चल रही होती हो और अर्थतंत्र जटिलताओं में गुजर रहा होता हो। मानवीय मूल्य मानव निर्मित संविधानों और कोर्पोरेट संप्रदाय की भेंट चढ़ रहे होते हों।
रामायण का तुलसी-कृत नवीन संस्करण "राम चरित मानस" भी इसी दौर में उतरा है और गीता जिसमे प्रकृति को केन्द्रिय भूमिका में रख कर ज्ञान और विद्याओं को विज्ञान के अंतर्गत रख कर बताया गया है यह भी इसी दौर में अधिक प्रचारित-प्रसारित हुयी है।
जबकि भारतीय मनीषी तो प्रकृति को माया कह कर प्रकृति के वैज्ञानिक नियमों का अध्ययन करना और भौतिक निर्माण के विकास को माया में उलझना कहते रहे हैं। इसकी अपेक्षा प्रकृति के साथ सन्तुलन बनाने के लिए Sense,बोध,संवेदनशीलता को विकसित करते हुए आत्म-कल्याण यानी अमरता को प्राप्त करने और जीवन में सत-चित-आनंद घन की स्थिति का सुख लेने को एवं स्वस्थ रहते हुए जीवन जीने एवं स्वस्थ रहते हुए ही स्वेच्छा से देह त्यागने को जीवन की सफलता का पैमाना मानते आते हैं। Science को जानने की तुलना में Sense को, आत्म-बोध को विकसित करने को अधिक कल्याणकारी मानते आये हैं।
प्रकृति के नियमों को वेद या विज्ञान के नाम से जानकर इस मायावी जगत से आकर्षित होते होते जब हम काम और अर्थ Commarce में, वाणिज्य में उलझ जाते हैं तब हमारे ज्ञान-विज्ञान की मायावी खोज भी काल-स्थान-परिस्थिति के बहाव में आ जाती है। तब हमें यह इक तरफा विकास प्रासंगिक लगने लग जाता है। लेकिन विकास की इस प्रतिस्पर्धा दोड़ में जीवन ही जब अप्रासंगिक हो जाता है तब एक ऐसी अवधारणा की आवश्यकता होती है जो समग्रता लिए हुए हो,सम्यक हो। जोकि गीता मैं संकलित है।
ब्रह्म-ज्ञान आत्म-कल्याण के लिए आत्म बोध कराता है और वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] शारीरिक क्रियाओं को संचालित करने वाले सृष्टम की जानकारी देता है और ये दोनों ही विषय व्यक्तित्व विकास के लिए व्यक्तिगत है, जबकि वैष्णव साहित्य सामूहिक जीवन में काम आनेवाले अर्थशास्त्र में ब्रह्म-ज्ञान और वैदिक-ज्ञान को जोड़ता है,योग करता है अतः आज जब वैश्वीकरण का दौर है तब गीता का अशेषेण संकलन समग्र दृष्टिकोण देता है।
जब समग्र और सम्यक हो तो वह अशेषेण हो जाती है अर्थात जो एक तरफ तो पूर्ण होती है तो दूसरी तरफ अंतहीन हो जाती है तब वह अशेषेण कही जाती है। गीता भी ऐसी ही एक रचना है जिसे शास्त्र [ धर्म sense और विज्ञान science ] की श्रेणी में भी रखा गया है।
यह गीत की तरह गाया जाने वाला आख्यान भी है।
यह गुरु-शिष्य प्रश्नोतरी के रूप में उपनिषद् भी है।
राजनीति,अध्यात्म,शरीर विज्ञान,जीवनशैली, अर्थशास्त्र इत्यादि जितने भी विषय होते हैं।
सभी को एक सूत्र में बाँध कर बनाया गया सूचीपत्र और शब्द कोष भी है।
सभी विषय होने के कारण इसे पूर्ण रूप से समझ पाना तभी सम्भव होता है जब इसे सांख्य के अनुसार समझें।जैसे की विज्ञान का एक सूत्र या समीकरण या सिद्धांत पुरे चेप्टर को सपष्ट कर देता है, उसके बाद वह एक सूत्र अंतहीन माया के विस्तार में अंतहीन वैज्ञानिक विकास का कारण बन सकता है।
सन्त का एक दोहा या एक लोकोक्ति उतना कुछ सैद्धांतिक तथ्य कह देती है जो अनेक पुस्तकों की रचना के बाद भी कह पाना सम्भव नहीं होता है।
इसी परिप्रेक्ष में श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारह अध्याय कुल तीन भागों में वर्गीकृत किये जाते है।
- एक से लेकर छः अध्याय तक जो कहा है वह व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यक्तित्व के विकास सम्बन्धी हैं । अतः ये अध्याय विषेष रूप से किशोरों एवं नवयुवाओं के लिए उपयुक्त हैं। यदि वैज्ञानिक शब्दों के भाषा में कहें तो ये छः अध्याय आत्म-भाव को विकसित करने के लिए मार्ग-दर्शन और प्रेरणा देने हेतु हैं। इसे अहम् ब्रह्मास्मि ब्लॉग में पढ़ें।
- सातवें से लेकर बारहवें अध्याय तक में जो कहा है वह भावों के परस्पर आदान-प्रदान वाली जीव विज्ञान की ईकोलोजी (सनातन धर्म) की शाखा को शरीर विज्ञान के माध्यम से समझने हेतु हैं। इसे कृष्ण वन्दे जगत गुरुं ब्लॉग में पढ़ें।
- तेरहवें अध्याय से लेकर अठारहवें अध्याय तक के छः अध्याय जीव-विज्ञान की फिजियोलोजी और उससे जुड़ी साइकोलोजी संबंधी हैं जो कि समाज विज्ञान के परिप्रेक्ष में प्रशासनिक या शासक वर्ग के हेतू है । इसे शिवोहम में पढ़ें।
6+12+18 का पूर्वार्ध। छठे, बारहवें तथा अठारहवें के 50वें श्लोक तक में है। [6] आत्मसंयमयोग [12] भक्तियोग [18] मोक्षसन्यास योग।
18 का उत्तरार्ध। पचासवे से अन्तिम श्लोक तक जो कहा गया है वह उपसंहार है।
यदि कोई जिज्ञासु पूर्ण और सम्पूर्ण Complete & Whole सत्य जानना चाहता है तो उसे श्रीमद्भगवद्गीता में, जो लिखा है उस में से बिना किसी तथ्य को विमृष (विस्मृत) किये अपनी चेतना में स्थापित करे उसके बाद ऐसा कोई तथ्य नहीं रहता जिसे जानना शेष रह गया हो।
जबकि जनसाधारण को इससे कोई लेना नहीं होता कि शरीर में ये क्रियाऐं कैसे चलती हैं उसे तो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के देवत्व से मतलब होता है। उसके लिए तो वही साकार देवता होता है, जो उन्हें उनकी नैसर्गिक, मौलिक और आधारभूत आवश्यक सुविधायें देता है,जो देवत है वह देवता है। अतः यहाँ वे लोग जन साधारण के देवता होते हैं जो उनको गवर्न करने वाले गुरु होते हैं। अतः तीसरे वैदिक पार्ट में आचार्य की उपासना करने को कहा है।
लेकिन इस तथ्य की कुरआन के उस सन्देश से तुलना करें,जिसमे किसी को भी सजदा न करने की बात कही है, तो विपरीत लगेगा । लेकिन गीता के प्रथम भाग में ब्रह्म भी यही बात कहता है कि जो देवों का यजन करेगा वह देवों को प्राप्त होगा और जो मेरा यजन करेगा वह मुझे प्राप्त होगा। यहाँ "मेरा यजन" से तात्पर्य है "मैं जो Brain/ब्रह्म रूप में चेतना,बोध,Sanes रूप में हूँ उसका यानी अपने आप का यजन"
वैदिक परम्परा के समानान्तरण प्राकृत परम्परा है। वैदिक परम्परा वाले वैदिक ऋषि (वैज्ञानिक) कहे गये और प्राकृत परम्परा के मुनि (दार्शनिक) कहे गये हैं ।
इन दोनों का योग ही व्यक्ति को योगी ब्रह्मण बनाता है।
मैं मूलतः तो मुनि हूँ लेकिन मैं वेदों की इस तरह वृताकार व्याख्या करता हूँ कि तथ्य और तत्व का कोई भी आयाम अछूता ना रह पाये।
मैंने [वेदव्यास ने] ही वैदिक शब्दों का मानवीकरण करके पुराणों की रचना की है। मैंने ही ब्राह्मणों [ब्रह्मण ग्रन्थों] तथा स्मृतियों मैं वर्णित तथ्यों को उपदेषों के रूप में गुरू-शिष्य की व्यक्तिगत वार्ता का रूप देकर उपनिषद रचे।
प्रत्येक उपनिषद गुरू शिष्य की व्यक्तिगत वार्तालाप के रूप में है। किसी में गुरू तो आत्म-रूप / ब्रह्म है और शिष्य शरीर रूप है, तो किसी में गुरू शरीर की प्रकृति रूप है तो शिष्य शरीर[पदार्थ] रूप है। शिव-गीता में गुरू ॐ आकार शरीर रूप है और शिष्या पार्वती, शक्ति, प्रकृति रूप है और राम-गीता में भी गुरू ॐ आकार शरीर रूप है तो शिष्य लक्ष्मण जनसाधारण शरीर/पुरुष है।
यह सब इसलिए करता आया हूँ ताकि जन साधारण को साक्षर बनाने की दौड़ में न घसीटा जाये। सिर्फ श्रुति परम्परा से ही,रोचक किस्से-कहानियों से ही ज्ञान-विज्ञान की परम्परा निर्विध्न चलती रहे। इसी परिप्रेक्ष्य में महाभारत नामक कथा-साहित्य के माध्यम से मैंने व्यक्ति के अन्दर के विभिन्न अलग-अलग मनोविज्ञान को एक एक पात्र में गहराई एवं विस्तार से उकेर कर प्रत्येक पात्र को विशिष्टतम चरित्र बना कर उसे महारथी बना दिया है ।
लेकिन मेरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना हैः ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता‘‘ इस छोटे से उपनिषद में गुरू-शिष्य की वार्ता के रूप में मैंने सभी वेदों-उपनिषदों के सारगर्भित तथ्यों को वर्गीकृत करके एक सूत्र में बाँध दिया है।
अतः एक तरफ तो मैं मानव मात्र को इसकी व्याख्या निशुल्क उपलब्ध करा रहा हूँ तो दूसरी तरफ जिसकी रूचि ज्ञान मार्ग से सत्य को जानने में होगी सिर्फ वही इसे पढ़ेगा, तत्पश्चात जो यह जानता होगा कि बिना उपयोग किये बिना ज्ञान व्यर्थ है, वह विषमता में फँसे इस अव्यवस्थित हो चुके जगत को पुनः सम-व्यवस्थित,संस्थापित करने के लिए ज्ञान और कर्म दोनों का योग करने योग्य योगी होगा वह स्वतः ही आगे आएगा।
जबकि आज की स्थिति यह है जो जितना बड़ा साक्षर (डिग्रीधारी) होता जाता है वह उतना ही अधिक अशिक्षित होता जाता है । क्योंकि वह अपने मानवीय कर्तव्यों एवं अधिकारों के विपरीत सोचने लग जाता है और अपने इसी मनोविकार को व्यावहारिक बुद्धि, Practical intelligence कहने लग जाता है।
श्रीमद्भगवत गीता नामक इस उपनिषद को छोड़ कर जितने भी शास्त्र एवं उपनिषद रचे गये हैं वे सभी किसी न किसी अपने विषिष्ट विषय पर ही केन्द्रित हैं। अनेक विषय ऐसे भी हैं जिनको लेकर तब आपको असमंजस भी होता होगा जब आप एक ही बिन्दु पर अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग लिखा देखते हैं। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक पुराण किसी न किसी जॉब आधारित जातीय सम्प्रदाय के लिए विषेष कोण से लिखा गया है अतः उसके अलग-अलग विशिष्ट आयामों को उपयुक्त (उपयोगी) तरीके से उकेरा गया है ।
जबकि इस कृष्ण-अजुर्न संवाद नामक गीता में किसी भी बिन्दु को शेष नहीं रखा है और प्रत्येक बिन्दु को त्रिआयामी तथ्यों से स्पष्ट किया गया है। अतः यह ना तो विषिष्ट वर्ग के लिए विशिष्ट है और ना ही विशिष्ट काल-स्थान-परिस्थिति तक ही प्रासंगिक है और ना ही यह वृद्धावस्था और मृत्यु शैया पर पड़े लोगों के लिए है ।
जबकि यह किशोरावस्था और नवयुवावस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । क्योंकि इसी अवस्था में एक नवयुवक को अपने व्यक्तित्व विकास की दिशा और दशा का निर्णय लेना होता है । इसी वय में दिमाग की एक-एक करके खिड़कियाँ खुलती है जहाँ से ज्ञान का प्रकाश आकर अवधारणाऐं विकसित करता है।
यदि अवधारणाऐं बनने के समय ही एक जिज्ञासु किसी वाद और पूर्वाग्रह में बँध जाता है तो फिर उन अज्ञान जनित विचारधाराओं से मुक्त होना बड़ा ही पीड़ा दायक होता है। अतः जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, राष्ट्र से ऊपर उठकर ही इस कृष्ण-अर्जुन संवाद के रूप में लिखे गये ज्ञान-विज्ञान के विश्वकोष को पढ़ें ।
ना तो भारतीय होने के नाते इस पर गर्व करके इतराने की आवश्यकता है और ना ही इसें किसी सम्प्रदाय विशेष का समझ कर इस में दोष ढूढ़ने का प्रयास करने का मानसिक श्रम करने की आवश्यकता है । सिर्फ जिज्ञासु बन कर इसका अध्ययन करने की आवश्यकता है ।
जब हम नकारात्मक विचारों Negative thoughts से सोचते हैं तब तर्कपूर्ण जिज्ञासा के स्थान पर वस्तुस्थिति को नकार कर कुतर्क करते हैं। जैसे कि भगवान या ईश्वर यदि है तो फिर दुनियाँ में इतना अन्याय, दुःख और भ्रष्टाचार इत्यादि क्यों है ? लेकिन किसी तथ्य को नकार कर उस पर प्रश्न चिन्ह लगाना और जिज्ञासु होकर प्रश्न पैदा करने में रात और दिन जितना भेद होता है। अतः गीता के अध्यन से पूर्व अपनी अवधारणा स्पष्ट करलें।
यह विचार भी एक नकारात्मक मानसिकता से उपजा है कि अर्जुन तो लड़ना नहीं चाहता था लेकिन कृष्ण ने उसे हिंसा में धकेला। इस तरह के तार्किक-विचार जिज्ञासा हो;तब तो उस मनोविज्ञान कि अपेक्षा उचित होते हैं, जो तर्क की कसोटी पर कसे बिना अंधभक्ति से स्विकार कर लिये जाते हैं।
अतः यहाँ यह तथ्य स्पष्ट हो जाना चाहिए कि एक राजनीतिज्ञ और राज्य की बागडोर सँभालने में सक्षम किन्तु सहज व्यक्ति को यह बताया गया है कि तुम्हें यह लडाई इस लिए नहीं लड़नी है कि सत्ता का सुख भोगना है, बल्कि इस लिए लड़नी है कि जिस दुर्योधन के राज में धन का दुरुपयोग युद्ध के लिए आयुध [ Armament ] खरीदने में हो, जिस दुशासन के राज में प्रशासनिक प्रणाली सीधे-साधे जनसाधारण का सुख छीनने वाली और दुःख बढाने वाली हो, उनको मारकर सत्ता अपने हाथ में लेनी है और जिस सम्राट की धृति [ अवधारणा धारण करने वाली बुद्धि ] राष्ट्र के नाम पर बन्ध जाये और जन समस्याओं के प्रति अँधा होकर सिर्फ अपनी सन्तान को ही सत्ता पर बैठने का इच्छुक हो जाये, ऐसे अन्धे धृत-राष्ट्र से राष्ट्र को मुक्त कराना है।
आज जब सभी राजनैतिक दल और दलों के सम्राटों की यही स्थिति हो गई है,शासक-प्रशासक व्यवस्था के स्थान पर अव्यवस्था फैला रहे हैं, राष्ट्र की भोगोलिक सुरक्षा के नाम पर मानवीय संवेदनाएं नष्ट हो गयी है, इस स्थिति में सिर्फ सत्ता हस्तान्तरण के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए लडाई लड़नी है। यह लडाई उस हिंसा के विरुद्ध अहिंसक होनी चाहिए जो हिंसा हमें कुत्तागिरी तक गिरा चुकी है और हम झुण्ड बना-बना कर रोटी के कुछ टुकड़ों [ पैसों ] के लिए और अपनी गली [गलियारे ] के अधिग्रहण के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए हैं। इस हालात में विद्यार्थी ही एकमात्र ऐसा वर्ग है जो गीता की अवधारणा को समझ कर राजनैतिक लडाई लड़ सकता है।
यह लडाई पाँच पाण्डवों वाली पंचायती राजव्यवस्था और धार्तराष्ट्रों के बीच थी और वही लडाई आज मतदान पत्रों के माध्यम से पुनः लड़ी जानी है।
राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व में बँधे वर्ग से मैं मुनि वेदव्यास यह अपेक्षा करता हूँ कि वे अर्जुन होकर अर्थात् सहज होकर पढ़ें और सनातन धर्म (परिस्थितिकी/ईकोलोजी) की रक्षा और प्रसार के लिए प्राकृतिक-उत्पादन की अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने हेतू किये जा रहे इस प्रयास हेतू ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रियता बढ़ायें।
मात्र गौवध रोकने से कुछ नहीं होगा। जो पैदा हुआ है वह मरेगा। आज की आवश्यकता है "गौवंश के संवर्धन की"।
भारतीयों को ना तो आणविक उर्जा से सुखी किया जा सकता है ना ही नगरीकरण और औद्योगिकीकरण से सुखी किया जा सकता है,न ही विदेशी निवेश से, चुंकि आप माध्यम मार्गी दल से हैं ,अतः भारतीय जनमानस घूम-फिर कर आपको ही चुनता है। जबकि आप इसका दुरूपयोग करते हैं । इसका अर्थ यह ना समझें की मतदाता के पास वापस थपड़ मारने की हथेलियाँ नहीं है।
साम्यवादियों से कहना है वे भारतीय कौटुम्बिक व्यवस्था वाले कम्युनिज्म का अध्यन करें आयातित विचारों और विदेशी भाषा को पढालिखा होने का मापदंड न बनायें।
ॐ तत सत
ye ek khubsurat baat hai..vishvakalyaan ke liye ye sab zaruri hai....
ReplyDeleteye ek khubsurat baat hai..vishvakalyaan ke liye ye sab zaruri hai....
ReplyDeleteजीव विज्ञान (Biology) प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है।
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